चौपाई:
(1)
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई । करि माया नभु के खग गहई ।।
(समुद्र में एक मायावी राक्षसी रहती थी, जो अपनी माया से आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को पकड़ लेती थी।)
(2)
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं । जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ।।
(जो भी जीव-जंतु आकाश में उड़ते थे, वह समुद्र में उनकी परछाईं को देखकर उन्हें पकड़ लेती थी।)
(3)
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई । एहि बिधि सदा गगनचर खाई ।।
(वह परछाईं पकड़कर उसे जकड़ लेती थी, जिससे वह उड़ने में असमर्थ हो जाते और वह उन्हें खा जाती थी।)
(4)
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा । तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ।।
(उस राक्षसी ने हनुमानजी के साथ भी वही छल करने की कोशिश की, लेकिन हनुमानजी ने तुरंत उसका कपट समझ लिया।)
(5)
ताहि मारि मारुतसुत बीरा । बारिधि पार गयउ मतिधीरा ।।
(तब वीर पवनपुत्र हनुमानजी ने उसे मार डाला और अपनी बुद्धिमत्ता से समुद्र पार कर गए।)
लंका के सुंदर वन का वर्णन
(6)
तहाँ जाइ देखी बन सोभा । गुंजत चंचरीक मधु लोभा ।।
(लंका पहुँचकर हनुमानजी ने वहाँ के वनों की शोभा देखी, जहाँ भौंरे फूलों के रस के लोभ में गूँज रहे थे।)
(7)
नाना तरु फल फूल सुहाए । खग मृग बृंद देखि मन भाए ।।
(वहाँ अनेक प्रकार के सुंदर वृक्ष, फल-फूल खिले हुए थे और पक्षियों एवं मृगों के झुंड देखकर हनुमानजी का मन प्रसन्न हो गया।)
(8)
सैल बिसाल देखि एक आगें । ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें ।।
(उन्होंने आगे एक विशाल पर्वत देखा और बिना किसी भय के दौड़कर उस पर चढ़ गए।)
(9)
उमा न कछु कपि कै अधिकाई । प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ।।
(भगवान शिव माता पार्वती से कहते हैं—”हे उमा! यह कोई हनुमानजी की विशेष महिमा नहीं, यह तो केवल श्रीराम के प्रताप का प्रभाव है, जो मृत्यु को भी निगल जाता है।”)
(10)
गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी । कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ।।
(पर्वत पर चढ़कर हनुमानजी ने लंका को देखा, जो अत्यंत अद्भुत और दुर्जेय किला था। उसका वर्णन करना भी कठिन था।)
(11)
अति उतंग जलनिधि चहु पासा । कनक कोट कर परम प्रकासा ।।
(लंका बहुत ऊँचाई पर स्थित थी, जिसके चारों ओर समुद्र था। उसके चारों ओर सोने की प्राचीरें थीं, जो परम प्रकाशमान थीं।)