चौपाई:
(1)
मसक समान रूप कपि धरी । लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ।।
(हनुमानजी ने मच्छर के समान छोटा रूप धारण किया और भगवान श्रीराम का स्मरण करते हुए लंका की ओर बढ़े।)
(2)
नाम लंकिनी एक निसिचरी । सो कह चलेसि मोहि निंदरी ।।
(लंका की रक्षा के लिए “लंकिनी” नाम की एक राक्षसी तैनात थी, जो हनुमानजी को देखकर बोली—”तू कौन है जो मेरी अवहेलना कर रहा है?”)
(3)
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा । मोर अहार जहाँ लगि चोरा ।।
(अरे दुष्ट! तू मेरे रहस्य को नहीं जानता। मैं अब तक चोरों और दुश्मनों को अपना आहार बना चुकी हूँ।)
(4)
मुठिका एक महा कपि हनी । रुधिर बमत धरनीं ढनमनी ।।
(हनुमानजी ने एक ही घूँसा मारा, जिससे वह खून उगलते हुए धरती पर गिर पड़ी।)
(5)
पुनि संभारि उठि सो लंका । जोरि पानि कर बिनय संसका ।।
(फिर वह सँभलकर उठी और हाथ जोड़कर डरते हुए प्रार्थना करने लगी।)
(6)
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा । चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ।।
(जब ब्रह्माजी ने रावण को वरदान दिया था, तब जाते समय उन्होंने मुझसे कहा था—”जब तुझे एक वानर के हाथ से मार पड़ने लगे, तब समझना कि राक्षसों का विनाश निकट है।”)
(7)
बिकल होसि तैं कपि कें मारे । तब जानेसु निसिचर संघारे ।।
(जब तू किसी वानर के हाथ से व्याकुल हो जाए, तब समझना कि राक्षसों का संहार होने वाला है।)
(8)
तात मोर अति पुन्य बहूता । देखेउँ नयन राम कर दूता ।।
(आज मेरा बहुत बड़ा पुण्य उदय हुआ है, क्योंकि मेरे नेत्रों ने श्रीराम के दूत को देख लिया।)
दोहा:
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ।।
अर्थ:
(लंकिनी ने कहा—”हे तात! यदि स्वर्ग और मोक्ष के सभी सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो वे भी मिलकर उस सुख के बराबर नहीं होंगे, जो केवल एक क्षण के लिए भी सत्संग (संतों के संग) से प्राप्त होता है।”)